



आर्ष गुरुकुल महाविद्यालय होशंगाबाद(म.प्र.) का प्रारम्भ 27 अप्रैल 1912 ई. (वि. सं. 1969) को आर्य प्रतिनिधि सभा मध्यप्रदेश व विदर्भ के तत्कालीन मन्त्री माननीय श्री पं. नन्हेलाल मुरलीधर जी के प्रयत्नों से हुई। इसके प्रथम आचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती थे। पश्चात् आचार्य रामचन्द्र विद्यारत्न जी ने बहुत लम्बे काल तक आचार्य का पद सम्भाला। आरम्भिक वर्षों से अब तक यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा के मुख्य संरक्षण में है।
संस्थापक
श्री नन्हेलाल मुरलीधर उत्तरप्रदेश के निवासी थे, परन्तु व्यवसाय की दृष्टि से ब्रह्मदेश, श्रीलंका आदि का भ्रमण करने के उपरान्त नरसिंहपुर मध्यप्रदेश में आकर बसे थे। मन में व्यापार की इच्छा थी, परन्तु संस्कारों ने उन्हें प्राथमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक होने को मजबूर किया और आपने वहां बड़ी योग्यता और निष्ठा के साथ विद्यार्थियों को चरित्र, नैतिकता व धर्म का पाठ पढ़ाया।
आपने नरसिंहपुर में म.प्र. व विदर्भ का पहला प्रिटिंग प्रेस ‘‘सरस्वती विलास प्रेस’’ के नाम से खोला था। उसके साथ में आपने हवन सामग्री, सुगन्धित तेल व इत्रादि की दुकान भी प्रारम्भ की थी। आपके प्रेस में बहुत सा आर्य साहित्य प्रकाशित हुआ। जिसका उल्लेख शासन द्वारा प्रकाशित गेजेटियर में भी मिलता है। नरसिंहपुर में आर्य समाज की गतिविधियां 1890 ई. में प्रारम्भ हुईं। श्री नन्हेलाल जी स्वामी आत्मानन्द जी के सम्पर्क में आये उससे पहले नरसिंहपुर के आस-पास में आर्यसमाजों की स्थापना हो चुकी थीं। जिसके परिणाम स्वरुप 1899 में आर्य प्रतिनिधि सभा मध्य प्रदेश व विदर्भ की स्थापना हुई और श्री नन्हेलाल जी उसके प्रथम मन्त्री निर्वाचित हुए और 1899 से 1906 तक आप मन्त्री पद पर सुशोभित रहे, पुनः 1925 से 1930 तक सभा के प्रधान रहे। 1903 में आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा आर्य सेवक पत्रिका निकाली गई और नरसिंहपुर में अनाथालय की भी स्थापना की गई, उसमें आपका अभूतपूर्व योगदान रहा।
पूर्व में समस्त जनों के मन में यह सदिच्छा उत्पन्न हुई कि वेदविद्या ब्रह्मचर्य व शास्त्रों के पठन-पाठन की स्थापना हेतु एक गुरुकुल की आवश्यकता है, पर किन्हीं कारणों से वह सुचारुरूप से प्रारम्भ न हो सका। परन्तु 27 अप्रैल 1912 ई. को श्रीयुत नन्हेंलाल मुरलीधर के अथक प्रयासों से गुरुकुल की स्थापना हुई । उसके परिणाम स्वरूप जो आर्य समाज व वैदिक धर्म के कार्यों में प्रगति हुई उसका सारा श्रेय आपको ही है। आपने अपनी कर्तव्य परायणता के द्वारा सामाजिक कार्र्यों को गति प्रदान करते हुए 1931 ई. में अपना यह भौतिक शरीर छोड़ दिया। इस प्रकार गुरुकुल की उन्नति के लिए आपके प्रति हम गुरुकुलवासी सदा ऋणी रहेंगे।
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